नकाब

कभी अच्छाई की
तो कभी किसी के बेहद करीब होने का
नकाब ओढ़ लेते हैं
कभी मदद करने का
तो कभी हमदर्द बनने का
अच्छा ढ़ोग कर लेते हैं हम,
हम इतने नकाब बदलते हैं
कि अपनी असलीयत हीं भूल गये
कभी कभी तो खुद़ को ढुंढते फिरते हैं
पर मिल नहीं पाता अपना अस्तित्व।
एहसास होता है कि
नकाबपोश से बेहतर थी बेनकाब जिंदगी।

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